Monday, January 30, 2012

हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाति(Ho Jatee Sangathit Kaheen... )


हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाति
९.९.१९२७
= दोहा =
भारतीय नहिं बिलखते ऐसे हाल विहाल
हो जाती संगठित यदि भारतीय जाति विशाल||
= छंद =
वीर प्रसूता सस्य पूर्णा रत्न रत्न्गर्भिता भू होती
दिख जाती सारी भूमी में जाति समुन्न्न्ती की ज्योती
नेक नाम अपना दिखाय के सद्गुण से शोभा पाती
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाती ||
भारतीय जनता प्रवीणता के पाठों को पढ़ जाती
मन्त्र महाबल महानता के मनस्वियों को सिखलाती
किसी भांति भी गरीब अरु गायों पे छुरी न चल पाती
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाती||
अति प्रचंड तत्वों से पर प्रपंच को मथ देती 
भांति भांति के जात पांत के सब झगडे सुल्झालेती
जन समाज के सब अंगों को संशोधन कर सुधराती
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाती||
करी अखंड हिन्द जनता को खंडित रिपुदल को करती
निःसहाय निर्बल के कोई भांति लूट नहिं हो पाती
अनेकता में दिखा एकता भारतीयता जग जाती
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाती||
प्रबुद्ध जन संगठित रूप में भारतीयता दिखलाते
दुष्ट दानवों का दम बेदम वीर शिरोमणी कर पाते
बली बनाय बालकों को यह वीर प्रसूता बल पाती
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाती||
नैन नीर से नहीं नहाती निर्बल सी नहिं रो लेती
दर्पी दुष्ट दानवों के दिल ऊपर दाल दला देती
घर घर में नरसिंह उपजते कवि कुबेर से भर जाती
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाती||
बना विज्ञ अल्पग्य जीव को आत्मयोग सिखला देती
बड़े ठाट से उसे ब्रम्ह कैवल्य रूप दिखला देती
सिखा धर्म के तत्व विश्व को सुख स्वंत्रता पा जाती 
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जाती||
कालबली  की सब करालता की जड़ को कुचला देती
प्रेम पसार विश्व जनता में बैर बीज जलवा देती
कल्प विटप "श्रीकृष्ण' कृपा की कली कभी की खिल जाती
हो जाती संगठित कहीं जो यह विशाल भारतीय जन जाती||
= दोहा =
हा! निष्ठुर !! दुर्दैव !!! तू अब तो पीछा छोड़,
होने दे इस जाति को जगभर की सिरमौर ||
  ता: ९.९.१९२७ को श्र. मित्र मंडल उज्जैन के कविसम्मेलन में पढी गई.|  

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