Saturday, January 28, 2012

धैर्य प्रशंसा (Dhairy Prashansaa )

धैर्य प्रशंसा
8.10.1916
धीरज के बल ते नर दुर्गम घोर विपति सहे दृढ़ता से,
धीरज को बल पाय गुणी कृतकार्य बने चमके सविता से |
धीरज काल को अनुकूल बने न अधीर सुधीर कहावे,
धीरज ते न कहा कहु होत फले सब काज सुधारस पावे ||

धीर धरी सुर सिन्धु मथ्यो निकसी कमला सबके मन भाई,
पै जब ही प्रकट्यो विष भीषण धीरज के बल पीर मिटाई|
अंत सुधा जब हाथ लग्यो, मन मोद भयो फल उत्तम पायो,
धीर धरो न अधीर बनो बिन धीर न काहू सुधारस पायो ||

पौधन को वसुधा कबहू कबहू सुख सेज पलंग बनावे,
भोजन को मिलिहैं कहुं साग कहुं वर अन्न हु की रूचि पावे|
है तनपे चिथड़े कबहू कवहु शुभ सुन्दर अम्बर धारे,
धीर लखे निज कारज को विधि की गति देखि धीरज हारे ||

पुत्र वही शुभ बर्तन ते निज मातु पिटा मन मौज बढावे,
नारी सुपात्र वही कहिये पति के हित में ही मन लावे |
मित्र वही सम भाव गहे, दुःख दूर करे नहिं प्रीती घटावे,
धीर वही दुखते न हटे विधि वाम निहारि नहीं कदरावे ||

नाव परी मझधार नदी गहरी अनुकूल चले न बयारी,
ऊपर मेघ महा बरसे तल में झप नक्र न चोंट बिसारी|
सूझी परे न दिशा कतहू तम घोर घनो नहिं कोऊ सहाई,
नाव लगी तट पे जब नावक धीरज की पतवार बनाई ||

धीरज धारज संकट में सुख सम्पति में क्षमता न बिसारे,
धारी पराक्रम युद्ध करे नय वाणी विलास सभा विच वारे |
संतत ही रूचि है यश की श्रुति की लघुहानि न किंचित भावे,
सिद्ध स्वभाव सुधीरन को शुभ कारज सारत बार न लावे ||

सागर बीच पज्यो तिनका छिन ऊपर आ जल माहि समावे,
संगती होत सजातिय की पल में पुनि घात वियोग लगावे|
जाय टिके तट पे कबहू टुक आय तरंग झकोर बहावे,
अस्थिर देखि दशा तृण की धृति धीर गहे अभिमान दुरावे ||

को बलवान भयो बिन धीरज ज्ञान गह्यो किन धीरज हारे,
मान रह्यो कस धीरज के बिन काज फल्यो कब धीरज टारे|
प्रेम निभ्यो कब धीरज के गए मित्र रह्यो कब धीरज मारे,
को अस वीर भयो जग में रण जीत लियो बिन धीरज धारे ||

धीरज धारि चले वन राम तपोवन में मुनि को दुःख टारयो,
मार्ग में सिय से बिछुड़े पर धीरज को धरि खोज लगायो|
मित्र सुकंठ सहाय करी संग सेन दई चलि सिन्धु बंधायो,
रावणमारि सिया संगले पलटे सुख से जब धीरज धारयो ||
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