Monday, February 13, 2012

कलि कौतुक कलाप (Kali Kautuk Kalaap)


**** कलि कौतुक कलाप ****

(२०.६.१९४५)
रंग रंग की बेरंग बातें बाँट रही परसाद,
मन को मित्र मोह बनपाया नित नव रूचि की याद |
मनोहर सुख सरसाया है
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||||
कोट बूट पतलून सूत सिर हेत घड़ी कर स्टिक,
मुख में चुरट आँख पर चश्मा ब्रांडी पिए अधिक |
जगत में रौब जगाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||||
रंडी वैद्य वकील बेरिस्टर जन का बढ़ गया जोर,
वित्त हरे अवनी तल का सब ठौर मचा है शौर|
सबों ने मौक़ा पाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||||
शिखा सटक गई सीस शिखर से पहुँची जहां कपाल,
वेद शास्त्र पौराण मतों को तोड़ गही नव चाल |
ज्ञान श्रद्धा बिसराया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||||
मेट्रिक एफ ए, बी ए, एम् ए करे नौकरी जाय,
देश नूर खोदिया स्वरुचि से वणिज कर्म नहिं भाय |
देश दारिद्र बढाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है  ||||
भारत की तजि भव्य विभूति गहे कुतंत्र विचार,
घर की सती पत्नी को छोड़े वैश्या से करे प्यार |
सुकुल की कीर्ति गमाता है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||||
महिला वारिक वस्त्र पहिनती उर में अतिशय हर्ष,
गात्र गात्र सब जनता देखे विसरी नयनन शर्म |
निलजता का पथ भाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||||
पान खाए पिचकारी मारे रंगे होंठ को लाल,
बैठि झरोखे नयन नचावे चले अनर्गल चाल |
सती का पथ शरनाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||||
तन की ताकत दूर हुई है मुह के गिर गये दांत,
ऐसे से धन लेकर शादी करे स्व पुत्री संग |
जवाईं ढूंढे बोखा है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१०||
भारत में ले जन्म न करते भारतीय से चाव,
औरों को अवतार मान कर भरे ह्रदय शुभ भाव |
अनर्गल चलन चलाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||११||
नित्य और साप्ताहिक मासिक पत्र पढ़ें नर नार,
हाल चाल नोटिस नित नव लखते बे जिम्मेदार |
देश को खूब छकाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१२||
नोटिस इश्तिहार वे गिनती की रति की भरमार,
माल मसाला यंत्र आदि की कीमत का न विचार |
देश को खूब लुटाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१३||
नीच सजे श्रृंगार मनोहर फाउंटेन पेन घड़ियाल,
पहिचाना नहिं जाय सहज में गल नेकटाई सिर बाल |
लुभावे कलियुग माया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१४||
सुर मंदिर सिर न झुकावे तीरथ से नित बैर,
सेल सपाटा लंडन से रूचि होटल की नित सैर|
भाग्य का विभव जगाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१५||
बीडी सिगरेट घर घर व्यापी जहं तहं धूम दिखाय,
जीते मुंह पर आग जलाना नित नव युग को भाय |
सुभग मन बहुत फुलाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१६||
सर्कस नाटक सीनेमोटोग्राफ लखत है घूर,
घर की जोरू काबू में नहीं पर घर पर मगरूर |
ढंग मन मोहक छाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१७||
वनिताओं के वश में नाचे चले हुकुम अनुसार,
वादीगर बन्दर सम नचता ऐसे हवा गंवार |
पुरुष क्यों नाम धराया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१८||
नेकटाई कालर गल फांसी, लेहगे सा पतलून,
चोली बांह कमीज, सफा मूछ साबूत |
जन्टलमेन कहाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||१९||
अधिक दलाली मिलने का लालच से भरा उछाव,
कभी दबावे खरीद्दार को कहुं विक्रेता दाव |
मुनाफ़ा सगा बनाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२०||
बूढ़े मात पिता को कहते ओल्ड फूल नित जाय,
कहें बावरे उन्हें अक्ल बूढों की धुल मिलाय |
युवक सूत भाग्य जगाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२१||
चाय बिना नहिं चैन घड़ी पल चाय सुशक्ति सुधार,
क्षीण बल होता जाता है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२२||
दिन प्रतिदिन व्यभिचार बढ़त है चंचल नयन नचाय,
गर्भपात गिनती करके श्री अक्कल हैरत खाय |
सुधारक भी शरमाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२३||
गाँव नगर रेलवे स्टेशन पर होटल होटल छाय,
सब मिल जुल होटल में जाकर जो चाहे सो पूरी खाय |
अभाक्षाभक्ष बढाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२४||
जल का ग्राह्या ग्राह्य विसारे देशाटन को जाय,
बैठ रेल में  लाड जलेबी पूरी कचोरी खाय |
अनाचारत्व पसारा है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२५||
कांग्रेसी चक्कर की देखी धर्म भावना धूर,
चारों वर्ण मिलाय एक करने में चकनाचूर |
साम्यता का मत भाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२६||
गुरू वर्ग दो दो स्त्री रक्खे चेला रक्खे चार,
धर्म हेत धन संगृह कर धन से करते खार |
नाम सन्यासी धारा है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२७||
विद्या पढ़कर कुशल कहाए करी नौकरी जाय,
रिश्वत लेवे कुशल कहाये नगदुल्ला नित पाय |
परमगति पेंशन पाना है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२८||
नारी देवलोक चल पाई संपत्ति रही न पास,
जगसुख की उम्मीद बिसरकर ले लीना संन्यास |
द्विजों से पैर पुजाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||२९||
गुड शक्कर से मिठास कम पाई कुसहर मधुर सुवास,
दूध दही घी से चिकनाई जन मन भृकुटी विलास |
परियों में प्रेम विलाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३०||
जहां तहां दिखलाय रहा है दया ज्ञान का लोप,
पाप पुण्य करना रूचि पर है अहंकार मति रोप |
सुगति का नाश लखाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३१||
जिस नगरी में 'कृष्ण'चन्द्र गोपालक जन्मे जाय,
उस मथुरा में कसाईखाने गोमारक खुल जाय |
पटल उलटा पड़ पाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३२||
जिस भारत में पहिले थी धन धरा धीर घी लेहेर,
उस भारत में भूखे भिक्षुक फिरें गली घर घेर |
अन्न कपडे का सांसा है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३३||
पुरुष छोड़ दीना पुरुषारथ घर में स्त्री का राज,
मूषक मांज्रारी सा घर में दोनों का संग साज |
बाल लग्न की ये माया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३४||
ब्राह्मण बे लगाम धर्मी हैं क्षत्रिय निर्भय नूर,
वैश्य करे धंधा सट्टे का शूद्र हो गये शूर |
यथेच्छाचार चलाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३५||
मूल वर्ण द्विज धर्म बिसारे नीच संग अनुराग,
धन हित धर्म तत्व को त्यागे अब किनके पग लाग |
सुशिक्षाधर्म विहीना है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३६||
पत्रा, चूवा, गटर, कवेलू खाते सट्टे बाज,
जूता, डंडा, हार, मार, गम खावे दीन लाज |
अन्नकंट्रोलर हारा है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३७||
चालीस सेर एक रुपये में गहूं मोल लाते थे,
ढाई सेर घी एक रुपये का सहज लोग पाते थे |
वहाँ जन भूखा सोता है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३८||
एक काल में आठ आने सौ पर लगता था ब्याज,
उसी देश में सूद सैकड़ा छै का मासिक आज |
धनिक के घर पौबारह है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||३९||
रामायण भागवत औ भारत सुनने को नित जाय,
गप्प शप्प में काल बितावे नजर नारी पर धाय |
व्यर्थ शुभकाल गमाया है
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||४०||
कहते कहते जीभ थकी है लिखते लिखते हाथ,
अपने रंग में रंगे हुवे क्यों सुने किसी की गाथ |
"कृष्ण" कित वेणु बजाता है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||४१||
बिना मूंछ का मुह बनवाया बिना लांग की धोती,
लेहगे नुमा पजामा भाया बिना ज्ञान की पोथी |
सुधारा सरस सुहाया है,
आँख उधार निहार कहाँ का कहाँ भुलाया है ||४२||
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