Monday, July 30, 2012
Tuesday, June 12, 2012
वर्षा वर्णन (Varsha Varnan)
वर्षा वर्णन
~ शार्दूल विक्रीडित छंद ~
वासंती ऋतुकाल अंत लखि के आया बली ग्रीष्म है,
भूमि पे अति उग्र पावक बढ़ा रूखे हुवे रुख है |
सूखे झील नदी न शीत मिलती लू की लगी वायु है,
प्राणी जीव चराचरादी तड़पें हा ईश क्या दुःख है ||
पंखे की लपटें लगे गरम हैं, पानी नहीं शीत है,
राजा तो गिरिश्र्नगपे चल बसें, पै दीं बेठोर है |
होता है न उपाय शीतारिपू का, प्रस्वेद जारी रहे,
है आराम न एक भी पल कहीं, हा नाक में प्राण है ||
हो उन्मत्त निदाध निर्दय भाया, संसार संतापदा,
तापे पावस भूप संग ले आए हरी आपदा |
भारी भीर भई भिरी दुहु अनी गर्मी भागी शीत से,
हारा ग्रीषम प्राण ले निज भगा जैसे निशा सूर्य से ||
वर्षा ग्रीषम युद्ध बीच नभ में आये महा मेघ हैं,
जैसे शूर अनेक शास्त्र सजी के युद्धार्थ एकत्र हैं |
विद्युच्छक्ति अनेक बार लपके आकाश शोभा लहे,
बूंदों के शर शीत चंचल चले पानी क्षितीपे बहे ||
बाढ़ें मेघ गिरीश तुल्य कबहु गरजे डरावे कभी,
आभा को चमकात खूब बिजली आँखे मिचावें कभी |
वर्षा की जय हार होत कबहु ग्रीष्माहू जीते हरे,
वर्षा से सुख शीत होत ग्रीष्माहू कबहु गर्मी करे ||
ऐसे देखि परास्त आत्मबल को ग्रीष्मभग्यो जान ले ,
पीछे से दल अस्त्र शास्त्र रिपु के वर्षा स्वयं ही दले |
छायो राज भलो बहू सुख भयो आनंद फैल्यो चहुँ,
ग्रीष्मा के दुःख से दुखी नरन के बा सौराव्य को का कहूँ ||
गावें हंस मयूर काक बगले आकाश में चैन से,
पावे कच्छप नक्र मीन जल में आनंद बसति से |
नानाकार अनेक मेघ नभ में काले सुहाने लगे,
जैसे विष्णु अनेक रूप धरि के आराम देने लगे ||
मेघों से जल भूमिपे बरसता धूलि न दीखे कहीं,
बाढ्यो कीच चहुँ दिशा पर भरे तालाब पूरे सही |
आई पूर नदी लाही विटप हु सम्पन्नता को बड़ी,
भूमी ने पति को निहारि हसिके ओढी हरी चूनड़ी ||
वर्षा में अवलोकि मेघ जल के कैसे खुशी मोर हैं,
नाचे नित्य विमुक्त कंठ युत हो के का कहें कुञ्ज में |
मेघों से शशि झांकता पुनि छिपे भागे लाखे भूमि को,
नारी सुन्दर देखि लुब्ध जन ज्यौं पावें न विश्राम को ||
दीखे राह न धंस में शशि छिप्यो तारे न खद्योत है,
रोके पंथ नदीं ने सब जगे फैल्यो बहु कीच है |
खावे टक्कर मेघ आप नभ में भारी करे शौर है,
देखी दिव्य प्रकाशमान चपला की चंचला चाल है ||
पानी के तट पे ध्वनि नित रहे शालूर के शब्द की,
बैठे बाहर भजंग बिल के लें मौज बर्सात की |
रीझे दीपक पे पतंग नित ही परवा नहीं प्राण की,
पिस्सू मच्छर की बनी अब भली ज्यौं रात में चोर की ||
फूले पंकज पुष्प पूर्ण दिन में संकोच हो रात में,
ऐसे ही सकुच कुमोद दिन में फूले सदा रात में |
तालों में सुखपूर्ण जौंक बिचरे प्यासी रहे खून की,
मानो दुर्जन को मिले सुख तौ हानी करे और की ||
मीनों के हित मौन हो बक मुनी पानी किनारे रहे,
पाखंडी तपसी सुवृत्ति दिखला ज्यौं चाल चुके न हैं |
फूले फूल अनेक रंग तितली उन्मत्त है गंध में,
बैठी आय पसार जाल मकडी आखेट की घात में ||
बैठे चातक झाड पे मन ला पानी चाहे स्वाति का,
कूके कोकिल नित्य उच्च सुर से शौक़ीन है आम का |
बांधा है सुठी गह भी चटक ने क्या चातुरी से बना,
पै शाखा मृग शाख पे लटकता है मेह का दुख ना ||
फूले सांझ अनेक रंग धनुके प्यारे लगे मेघ में,
मेघों के बहु रूप सुन्दर लगे श्रीराम के रंग में |
होये खूब झरी धनान्ध तिमिर प्रायः दिवा में परे,
कामी को शिखी शब्द व्याकुल करे हा! कामिनी रो रहे ||
खेले सारस हंस नवी जल में चोंचे लड़ाते तने,
छत्री ले सकुटुम्ब मानव घने तीर्थे सुचारी बने |
घाटों पे द्विज वारि से निपटके देवादि को पूजते,
हाथी सानंद हो अथाग जल में निर्भीक हो खेलते ||
पाया काल भला लगे कृषक भी हैं खेत के काम में,
पानी से सब खेत सस्य युत हो हैं डौलते चैन में |
चारों और वनस्पति बहु भये क्या बाग़ क्या वाटिका,
देखी सम्पति और की जल गया पौदा जवासाकी का ||
फूले फले फली फले फल कहीं करीगरी देखिये,
बागों में बहुधा लता घर बने सुदृश्य क्या भाखिये |
बेली पल्लव पुष्प को निरखिके कर्तार को जानिये,
क्या क्या 'कृष्ण' कहे जहां जहां निरखिये शोभा नई पाईये ||
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Monday, March 26, 2012
चक्कर (Chakkar)
i चक्कर i
९.९.१९२७
किसी की नाक में
चक्कर,
किसी के कान में
चक्कर |
हमारे हाथ में चक्कर,
हमें चक्कर में
क्या डरना ||
किसी की जान चक्कर
में,
किसी का मान चक्कर
में |
हमारा काम चक्कर
में,
हमें चक्कर में क्या डरना ||
हमें चक्कर में क्या डरना ||
किसी का ध्यान चक्कर
में,
किसी की अक्ल चक्कर में |
किसी की अक्ल चक्कर में |
हमारा देश चक्कर
में,
हमें चक्कर में क्या डरना ||
हमें चक्कर में क्या डरना ||
अडीले अन्धविश्वासी,
अघोरी आलसी ओछे |
अघोरी आलसी ओछे |
पड़े दुर्देव को
कोसें,
जहां फंसजाय चक्कर में ||
जहां फंसजाय चक्कर में ||
गपोड़ी गाँवठी गुंडे, गुणों के
शत्रु,
जनता के चक्कर में |
मचलते हैं जो बेसमझे, उन्हें समझा के कह्देना |
वृथा बरबाद क्यों
होते भला,
गैरों के चक्कर
में ||
अगर ऐसे कहे से
भी,
न आजावेंगे चक्कर
में |
गले में हाथ दे
देना,
गिरेंगे हंसके चक्कर
में ||
मोहब्बत का अज़ब
चक्कर,
मुरब्बत फांस लेती
है |
शरारत भूल जावेगा,
जो फंस जावेगा चक्कर
में ||
मोहब्बत में फंसा
होवे,
उसे क्या होश अपना
है |
शकर लिपटा ज़हर खाके
गिरेगा
आके चक्कर में ||
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चक्कर में (Chakkar Mein)
* चक्कर में *
९.९.१९२७
(दोहा)
चक्कर में आये हुवे
भारत के परिवार,
गहन गर्त में गिर
रहे करि अनीति पर प्यार ||
(मनहरण)
देश के सुधारिवे
को प्रेम कीजे सारे धाय,
अपनी रसीली बोली
बोरदीजे शक्कर में |
वीर अधिकार पाय
धारि लीजे बंधुभाव,
सबको सहाय दीजे
चाहे हल बक्खर में | |
पौरुष प्रचंड धार
साहस से शत्रुमार,
अपनी महानता बिसारी
दीजे मक्कर में |
अपस में फूट के
तनावे न तानो 'कृष्ण',
भाई! भारतीयता को
फांसिये न चक्कर में | |
धर्म पड़े चक्कर
में तो रूढी को मान घटे,
कर्म पड़े चक्कर
में तो पुण्य गिर जावेगो |
भाग्य होय चक्कर
में तो निर्धनता निश्चय होय,
रोग पड़े चक्कर में
तो मूर्ख वैद्य आवेगो | |
देश पड़े चक्कर में
तो फूट लता फ़ैल जाय,
प्रेम पड़े चक्कर
में तो संशयी बनावेगो |
एते सब चक्कर ते
'कृष्ण' है उबारी को
बुद्धि पड़े चक्कर
में तो गुरु ही जगावेगो ||
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Wednesday, March 14, 2012
स्वदेश संगठन हित की आवश्यकता(Swadesh Sangathan Hit Kee Aawashyakataa)
स्वदेश संगठन हित
की आवश्यकता
24.9.1930
कब तक जागोगे नींद
से ए देश भाइयों,
घर की बुझाओ मिल के
ए देश भाइयों ||
हीरे की वो प्राचीन ज्योति लुप्त हो
गई,
कपड़ा बदन पे अब तो घर का है
ना भाइयों ||
खाने को अन्न है ना तन पे देश वस्त्र
है,
संपत्ति सिन्धुपार गई देश भाइयों ||
कागज़ का रूपया चल गया शीशी मैं दूध
है,
गायों पे छुरी चल रही ए देश भाइयों ||
कारीगरी समुद्र पार दूर चल बसी,
हाथों के शस्त्र छिन गए ए देश
भाइयों ||
ढूँढो तो एक सुई भी ना घर में देश की,
छाया दरिद्र सब जगह ए देश भाइयों ||
छोडो विदेशी वस्तुएं कंगाल जिससे हो,
खादी बदन पे धार लो ए देश भाइयों ||
खादी जगायगी यहाँ भारत की विभूति,
आज़ाद, धनी, वीर करेगी ए देश भाइयों ||
धीरज में तसल्ली से मिल के देश
सुधारो,
होके वृत्ति स्वदेश के ए देश भाइयों ||
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देश-भक्त (Desh Bhakt)
देश-भक्त
देश सुधार
हिये धरिके जिन प्राण दिये नर धन्य कहाये
कीन्ह
विरोध सुलोभिन को भय छोड़ भले नर रत्न सुहाये
जेल गये
बहु कष्ट सहे भाव वैभव को मल से तजि पाये
ते नरसिंह विभूषण हैं जिन लाखन के हित
सीस कटाये||
मोह तजो अवधेश धराहित रावण गर्व सवंश
नसायो
मोह तजो इक
गिद्ध जटायु सिया हित में निज पंख कटायो
मोह तजो
प्रहलाद तहां नर के हरि ने अवतार धरायो
मोह तजो
हनुमान महा प्रण से रण में विजयी लाख पायो||
[] [] [] [] [] [] [] [] [] [] [] [] [] [] [] [] [] []
खादी (Khaadi)
[O][O][O][O] खादी [O][O][O][O]
किसानों को पोषे अबल विधवा के
दुःख हरे
पिन्जारों को पाले उदर जुलहा के
नित भरे |
बजाजों धोबी का खर्च बहुधा पूरण
करे,
स्वदेशी खादी से जगत हित जे जीवन
भरे ||
कपसों को बोके श्रम करत के पेट
भरदे,
विदेशी वस्त्रों को वृत करि
परित्याग करदे|
स्वदेशी धंधों से सुखद शुभ
साम्राज्य गुहते,
सदा खादी धारे हसत मुख निश्चिन्त
रहते ||
[O][O][O][O][O][O][O][O][O][O][O][O]
जीवन नया जगावेगी (Jeevan Nayaa Jagaavegee)
जीवन नया जगावेगी
माल भारती रुई नाज अलसी बाहर को जाता है,
वस्त्र कबाड़ खिलौने इंजन भारत भर में
आता है|
कागज़ कर में आकर सोना चांदी घर से
जावेगी,
दीन दरिद्री भूखी जनता "जीवन नया
जगावेगी" ||
उधर देखिये लार्ड सायमन संग कमीशन आता
है,
इधर एकताई का गाना कोंग्रेसदल गाता है |
धर्म विरोधी की तकरारें जहां तहां सुन
पावेंगी
कहिये क्यों न गज़ब की बातें "जीवन
नया जगावेगी "||
कहीं सुधा शुद्धि होती है कहीं
अछूतोद्धार किया,
कहीं प्रचारक बेचें खद्दर त्याग विदेशी
वस्त्र दिया |
ऐसे ही में वीर जयन्ती बार बार ललकारेंगी,
निर्बल जनकी आलस हरकर "जीवन नया
जगावेगी "||
(सुर्यान्योक्ति)
कैसा विकत काल आया है कालानल रवि तपता
है,
गर्मी से सब तड़प रहे हैं चैन न पल भर
मिलता है |
रे मदमस्त ! दुखद उष्णान्शु पावस ऋतु अब
आवेगी,
वह तेरा अभिमान मिटाकर "जीवन नया
जगावेगी "||
विश्वामित्र पडका आडम्बर तूने वृथा
धराया है,
कोमल कमोदिनी को मुरझा कुसुम कमल
विकसाया है |
रे रवि ! दीन जनों की आहें तेरी कला
घटावेगी,
सांझ हुवे पर 'चन्द्र चांदनी' "जीवन नया जगावेगी "||
O=O=O=OO=O=O=O=O=O=OO=O=O=O
(बमौके प्रताप जयन्ती ता: २२.५.१९२८ के
कवि सम्मलेन, उज्जैन में पढी गई. सार्वजनिक सभा, उज्जैन के कहने से)
जीवन का पाठ (Jeevan kaa Paath)
जीवन का पाठ
(एक समस्या - राष्ट्र भक्ति )
कुंडलिया छंद
बैठी हिमगिरी गोद में चेटी परम प्रवीण,
बेटी चौमुख बाकी जय भारती अदीन|
जय भारती अदीन, अन्नपूर्णा सुखदाई,
पुत्रवत्सल का पाठ विश्वमोहिनी मात सवाई
करिए ऐसी कृपा तुझसे नहिं छेटी,
मम “जीवन का पाठ” सफल कर
बैठी बैठी ||१||
शार्दूल विक्रीडित छंद
जाके देखतही सुरेंद्रनगरी की लालसा
भूलती,
जाको पाकर है मनेप्सित सभी वांछा न
संचालती |
जासे प्रेमकिये अनन्य मनसे कीर्ति
सुविश्रांती देगी,
“जीवन का
सुपाठ”
सिखलाओ शोभावती भारती ||२||
जाकी भक्ति किये समस्त सुरभी संतुष्ट
होती सदा,
जाके सेवन से असंख्य जनता की होय
नष्टपदा|
जाके मार्ग की अनेक कणीका वेदार्थ देती
दिखा,
सो ही “जीवन का सुपाठ” जननी देगी
सोतुं को सिखा ||३||
दोहा
पुत्रवत्सला जननि से गाँठ नेह की गाँठ,
निज कर्तव्य संभारि के रट “जीवन का
पाठ”||
षतपदी छंद
भूमंडल सिरमौर ! अन्नपूर्णा ! वसुधारा !
कल्प विटप की जननि ! रत्न्गर्भी !
सुखसारा !
महादेवता द्वारपाल तेरे बलशाली,
पुत्रवत्सला ! रामकृष्ण, अर्जुन सुन बाली |
शंकर, वायुकुमार ने घाट घाट सेवा दई,
उन “जीवन के पाठ” को शोभा
नूतन भई || ४||
मनहरण छंद
संकट की गाँठ गाँठ की मिठास चाट चाट ,
घांट घांट जाय जाय ज्योति को जगाईये |
हाय हाय छांडी छांडी खान पान को बिहाय,
भाटवन भारती की चासनी चखाईये |
कायरों को डाट डाट जरिये ना बिना काट,
प्रेम की मिठास माट माट में मिलाईये |
जीवन के साथ साल आठ आठ गुणे साधि,
आजीवन “जीवन का पाठ” पढ़ जाईये ||५||
==================
धर्मवीर की प्रतिभा (Dharmveer ki Pratibha)
धर्मवीर की प्रतिभा
- दोहा -
धर्मवीर सुनिये सुजन कान खोल कर बात
धर्म समुन्नति के लिए चहिये भली जमात.
-छप्पय छंद-
शुभविचारयुत भली बहुश्रुत पर दुःख हरता,
हो कुशाग्र सद्बुद्धि चाल में रहे
प्रमुखता.
अभय अशंकित सबल नीतियुत होय सुजनता,
तेजस्वी स्वाधीन प्रफुल्लित
सत्यनियन्त्रा.
प्रणपरिपालक हो रहे दया दीनता होहिये,
हमें धर्म हित जागती जीती जनता
चाहिये.=१=
जिसमें होवे श्रेष्ठ सुमति की आशा ममता,
भीतर बाहर विमल सुखद तन तेज झलकता.
सहधर्मी से प्रेमसुमन की माल पहनता,
जिसकी सेवा किये हिये में नेह उमड़ता.
हमें चाहिये बलवती जनता दृढमति की सदा
एक एक सज्जन हरे सहधर्मी जिनकी व्यथा.
=२=
सारे मिलकर एक हो करिये सभा सुधार
बिगड़े को सुधराइये घर घर यही विचार
घर घर यही विचार धार मंडल कर लीजे
मुखियन को अपनाय सभा प्रतिनिधी की कीजे
कहें "कृष्ण" हीओ एक रूप
मुकति के प्यारे
कर दो बल संचार धर्म में मिलकर सारे||
>>>>>>>>>>> Total 6 stanza >>>>>>>>>
फ़िल्मी गीतों के लिए कवितायें (Poems for Film Songs)
मिट नहीं सकता
मिट नहीं सकता कभी लिक्खा हुआ तकदीर का,
बस नहीं चलता यहाँ, इन्सान की तदबीर का|
=मिट नहीं सकता कभी
मैं हूँ एक सिपाही
छोड़ उन्हें मैं
देता हूँ, जो मेरा मान गिराते
हैं,
फिर वे दुष्टों
के पंजे में फंसकर मुझे बुलाते हैं |
धार प्रताप प्रतापवीर
सा दुनिया का दुःख मैं हरता हूँ,
तो भी "मैं
हूँ एक सिपाही" सरल भाव से रहता हूँ ||
झूठी नकली बेकस
फैशन जब से भारत में आई,
दुखिया दीन दरिद्री
निर्बल भूखी हा! जनता पाई|
अधः पाट से पराधीन
हो रहे पुरजन गाई,
कहता "में
हूँ एक सिपाही" बिना दशा बेबस पाई ||
आंसू
ऐ आंसू आँख बचाके
चलदिये किधर कितराके |
दुखिया में दुःख दुसह दिखाते,
रसिया में रस रंग रमाते,
निर्मम मनुज मोह उपजाते,
कहो कौन तुम कंह्के,
चलदिये किधर कितराके ||
ऐ आंसू आँख बचाके
चलदिये किधर कितराके |
मणि माणिक मय रूप दिखाके,
मोतिक की अमोल धर काया,
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देश भक्ति पर कवितायें- Desh Bhakti par Kavitaayen
ऐसे नर धीर ही नागरिक कहाते हैं
-दोहा-
गुणागार सागर सरस, नगर नागरिक जान,
जिगर विगर गर जासु है, नगर नागरिक जान ||
-मनहर छंद-
देश के सुधार में प्रपंच का प्रचार मेट
पित्तामार काम में न नेक जी चुराते हैं |
विघ्न के प्रचारकों को लत्ता उपहार करें,
तत्ता बोल सुन के न शील को डुलाते हैं ||
नित्यता के योग से अनित्यता ढुराय देत,
सत्यता का मान अलबता कर पाते हैं |
शुद्ध सता की महत्ता का न अपमान करें,
ऐसे नर धीर ही नागरिक कहाते हैं ||
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जागिये
ओरन की सिख सीख सभ्यता अपनी खोई,
कमला गई परदेस विकल हो मेघा सोई |
बढियां तरुवर काट बेल घटिया की बोई,
आलस घर घर जगा वीरता झुककर रोई |
श्री मलीन मुख की हुई योही जिये तो क्या जिये,
बहुत काल से सो रहे भारतवासी जागिये ||
उन्नति की तलवार म्यान में पड़ी हुई है,
इन्द्रिय संयम छुरी जंग में जडी हुई है |
आत्मयोग के विमुख लालसा राज रही है,
दुःख दरिद्र के दास हुवे पर ध्यान नहीं है |
स्वर्ग सहोदर हिंद को नरक हा! न बनवाईये,
समझ बूझ मनमाहिं अब भारतवासी जागिये ||
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बलि हो जायेंगे
चटक मटक में छैल छबीले हो रहे,
मातृभूमि हित नींद उन्हों की खो रहे |
खद्दर धारी विमल भाव दिखलायेंगे ,
हिल मिल धीरज धारत बलि हो जायेंगे ||
खद्दरधारी हंस वंश परिवार है,
भारतभर के अमल कमल के सार हैं |
अगणित लाला दास तिलक बन जायेंगे,
वन्दे मातरम कहतहि बलि हो जायेंगे ||
हे प्रभुवर ! अब कृपा आपकी हो यही,
दिन दिन दशा सुधार सबल हम हों सही |
भारतपति इस बार वरद हो पायेंगे,
हो स्वतंत्र हम उन पर बलि हो जायेंगे ||
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